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KAVI GOSHTHI, BHILAI 2010

काफी सारे विडियो हैं...दो-तीन पोस्ट में मिला कर डाला जा रहा है...
यहाँ केवल कवि गोष्ठी के विडियो हैं ....
मंगलेश डबराल, शोभा सिंह, विनोद कुमार शुक्ल, प्रोफ्फेस्सर राजेंद्र कुमार, नाबरून भट्टाचार्य की कवितायें....









































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अन्धेरे की तड़प और उजाले का ख्वाब

चंद्रभूषण का कविता पाठ.......

जिस ट्रेन का इंतजार आप कर रहे हैं/ वह रास्ता बदलकर कहीं और जा चुकी है......./ सोच कर देखिए जरा/ ज्यादा दुखदायी यह रतजगा है/ या कई रात जगाने वाली पांच मिनट की/ वह नींद/ और वह भी छोड़िए/ इसका क्या करें कि टेªेनें ही ट्रेनें, वक्त ही वक्त/ मगर न जाने को कोई जगह है न रुकने की कोई वजह ;स्टेशन पर रातद्ध



आखिर सुविधाओं की होड़ वाले इस दौर में ऐसा क्या है जिसके छूट जाने की पीड़ा कभी पीछा नहीं छोड़ती और आदमी अकेला होता चला जाता है, निरर्थकता उस पर हावी होती चली जाती है। कविता में ट्रेन तो एक ऐसा रूपक था जो अपने सारे श्रोताओं में एक-ंसमान कसक का अहसास छोड़ता चला गया। श्रोताओं की ओर से इन पंक्तियों को सुनाने की दुबारा पफरमाइश हुई।

सी-10, नोएडा सेक्टर 15 में 11 जुलाई ;रविवारद्ध को आयोजित एक अनौपचारिक अंतरंग गोष्ठी में कवि-पत्राकार चंद्रभूषण की कविताओं को सुनना एक तरह से विडंबनाओं, घटियापन, पाखंड, मौकापरस्ती से भरे मध्यवर्गीय समाज में किसी संवेदनशील और ईमानदार मनुष्य के दुःस्वप्न, उदासी, अकेलापन, व्यथा, व्यंग्य और क्षोभ को सुनना था। एक बेहतर समाज और दुनिया चाहने वाले की चेतना पर बदतर दुनिया से होने वाले सायास-ंअनायास मुठभेड़ों और टकरावों से कैसे-ंकैसे विचारों की छाप निर्मित होती है, चंद्रभूषण की कविताओं में यह सब कुछ महसूस हुआ।

कहीं कोई बनावट नहीं और न ही कोई नकली उम्मीद। उनकी कविता में जहां इस दौर की विसंगतियों की पहचान नजर आई वहीं उसके बीच ‘दुविध’ में पफंसे उस आत्मा के सूरज का सच्चा हाल भी मिला जो क्षितिज पर अटका है, न उगता है, न डूबता है। इसलिए कि वह जहां है वहां ‘अपनी-ंउपनी नींदों में खोए/ सभी नाच रहे हैं/ बहुत बुरा है यहां खुली आंख रहना।’ लेकिन मुश्किल है कि अपने पांव भी थिरक रहे हैं, उन्हें न रोकना संभव हो पा रहा और न ही ‘चहार सू व्यापी एकरस लय’ में शामिल हो पाना। इसी दुविधा से तो अपने पास थोड़ा-ंबहुत आत्मा का सूरज रखने वाला हर व्यक्ति गुजर रहा है, खासकर मध्यवर्गीय व्यक्ति! अब यह एक ऐसा विंदु है जहां से अपनी विवशता को ग्लैमराइज करते हुए आदमी आत्मा के सूरज से मुक्ति पाकर चौतरपफा मौजूद नंगई के नाच में शामिल भी हो सकता है या पिफर उसमें रहने की विवशता को झेलते हुए भी इस परिदृश्य पर व्यंग्य कर सकता है, हालांकि यह अपर्याप्त है यह वह भी जानता है और उसकी कामना है कि नंगई को महिमामंडित करने वालों को खदेड़ा जाए, पर ऐसा हो नहीं रहा और कविता के लिए भी जैसे यह कोई बड़ी पिफ़क्र नहीं है, कवि को लगता है कि जब किसी वक्त नंगई के खिलापफ बैरिकेड लगेगा, तब आज की कविता के बारे में शोधकर्ता यही कहेंगे कि घटिया जमाने के कवि भी घटिया थे। और उसके लिए यह ‘सबसे बड़ा अपफसोस’ है।
बेशक जमाना तो घटिया है और इस घटियापन से कवि को अलग रखने का कोई घेरा है नहीं, ऐसे में श्रोताओं के लिए यह महसूस करना दिलचस्प था कि चंद्रभूषण के कवि ने अपने लिए कौन-ंसा रास्ता चुना है। इस ‘दुविधा’ वाली राह से आगे बढ़ते हुए, कवि ने ‘पैसे का क्या है’ कविता के जरिए स्पष्ट रूप से जैसे अपने जमाने की नियति को तय कर दिया-

जब यार-ंदोस्त होते हैं, पैसा नहीं होता
जब दिल लगता है तो पैसा नहीं होता
जब खुद में खोए रहो तो भी वो नहीं होता
पिफर पीछे पड़ो उसके
तो उठ-उठ कर सब जाने लगते हैं
पहले दृश्य, पिफर रिश्ते, पिफर एहसास
पिफर थक कर तुम खुद भी चले जाते हो

दूर तक कहीं जब कुछ नहीं होता
तो पैसा होता है
पैसे का क्या है
वो तो....

वो तो....
जिस वक्त व्यावहारिक दुनिया में पैसे को ही मुक्तिदाता समझा जा रहा हो, व्यक्ति-ंवातंत्रय के तर्क उसी के भीतर से निकलते हों और उसी के द्वारा बख्सी गई आजादी और सुख के भ्रम में लोग डूब-उतरा रहे हों और अपने अकेलपन और असुरक्षा की असली वजह उन्हें समझ में न आ रही हो, उस वक्त इस कविता को सुनना मानो अत्यंत सहज अंदाज़ में एक गंभीर चेतावनी को सुनना था। इसी पैसे और पैसे के बल पर हासिल सुविधाओं और श्रेष्ठता के मिथ्या होड़ में गले तक डूबी- दंभ, समझौतों, मौकापरस्ती, पाखंड, बेईमानी से लैस नितांत स्वार्थी और वैचारिक तौर पर उच्छृखंल आवाजें जहां परिदृश्य पर छाई हुई हों, वहां गहरी संवेदना से युक्त और हर छोटे-बड़े अहसास को आलोचनात्मक दृष्टि से देखते हुए बड़े कन्विसिंग अंदाज में किसी वैचारिक सूत्रा या निष्कर्ष तक ले जाने वाली चंद्रभूषण की कविताएं पाठकों और श्रोताओं के मन पर गहरा असर छोड़ गईं।amp;
न केवल अपने वर्तमान से उनके यहां मुठभेड़ है बल्कि पुरखों से भी एक बहस है और वहां भी एक निष्कर्ष है- मुक्ति के लिए भटकते मेरे पुरखे-पुरखिनों/ जिस दिन हमारी संतानें आंख खोलेंगी/ लांछना-प्रवंचना, हत्या-आत्महत्या से मुक्त/ एक नई दुनिया में/ उसी दिन, हमारे साथ तुम भी मुक्त होगे। बेशक यह सपना बहुत बड़ा और कठिन है और जो यथार्थ है इस सपने के लिए एक चुनौती बनके खड़ा है, क्योंकि यहां तो कालाहांडी, पलामू, यवतमाल और दिल्ली तक में लोग भूख से मर रहे हैं और पैसों वालों की जो व्यवस्था है उसके नुमाइंदों का कहना है कि ‘भूख से कोई नहीें मरता’, सपने पर आघात किसी को व्यंग्य से भर देता है यह कविता भी व्यंग्य में ही लिखी गई है- इंसान और चाहे जैसे भी मर जाए/ भूख से तो नहीं मर सकता/ भारत में तो बिल्कुल नहीं/ जो कुछ ही सालों में अमेरिका से / आगे निकल जाने वाला है। एक ओर व्यवस्थाजन्य भूख से होेने वाली मौतें हैं तो दूसरी ओर ‘नैनीताल, इतनी रात गए’ मंे एक प्रेमी जोड़े की आत्महत्या की पीड़ा से भरी दास्तान है। एक गहरी तड़प इसे सुनते हुए सबके भीतर महसूस हुई कि रात में जहां ‘सड़कों पर होती है आजादी और प्यार छितराया हुआ हर दुकान में’, जो है ‘स्वर्ग जहां प्यार था हर तरपफ और कुछ मोटे बिल जेबों में’ वहीं कोई जोड़ा आत्महत्या करने को मजबूर  है। काश! वे बच पाते, संग रह पाते- कविता और कविता सुनने वालों- दोनांे के भीतर एक-सा भाव था।  शायद यही वह संवेदनशीलता और करुणा है जिसके कारण दुःस्वप्नों की भरमार है चंद्रभूषण की कविता मंे। दुःस्वप्नों से भी वही गुजरता है इस दौर में जिसके पास वास्तव में सपनों की कोई विरासत हो, वर्ना आज के दौर में तो नींद मेें भी सपने बहुतों को नहीं आते।
एक ऐसे माहौल में किसी को रहना पड़े जिसे वह नापसंद करता है तो उसे दुस्वप्न क्यों न आएंगे? ‘रात में रेल’ कविता  में भी दुःस्वप्न है। रेल जैसे जिंदगी का रूपक है यहां भी- रात में रेल चलती है/ रेल में रात चलती है। दरअसल हर दुःस्वप्न का अपना यथार्थ होता है, प्रतीकात्मक अर्थ होते हैं, उसके गहरे सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ होते हैं। उसमें व्यक्ति का अपना वैचारिक संघर्ष भी होता है, इस कविता में भी यही महसूस होता है कि जिसे मूल्यवान समझा जा रहा है, जिसे सुंदर समझा जा रहा है वह भ्रम है। इसे सुनते हुए पिफर पैसे वाली कविता मानो नए संदर्भ में उपस्थित हुई,